Sorry! I am not sad about makbool fida husain क्षमा करे! मै मकबूल फ़िदा हुसैन के लिए दुखी नहीं हु

मुझे बहुत दुःख होता है बताते हुए की मै 'मुस्लिम' चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन का मुझे कोई दुःख नहीं है. यहाँ पर मैंने मुस्लिम शब्द का प्रयोग जान बुझ के किया है क्योकि उनका कोई भी काम इस दायरे से बाहर नहीं निकल पाया. हमारे भारतीय (क्या सच में थे वो ?) "पिकासो" कभी भी इस धर्म के शीशे से बाहर नहीं निकल पाए.  हालाकि मुझे चित्रकारी का कोई ज्ञान नहीं है पर इनको देख कर अवश्य जान गया की पैसा कितनी बड़ी चीज होती है. अगर आपका का काम बिकता है तो कोई अंतर नहीं पड़ता की आप दूसरो की भावनाओ का कोई सम्मान करते है की नहीं, कोई फर्क नहीं पड़ता की आप दूसरो के साथ कितना बुरा बर्ताव कर सकते है. 
मकबूल साहब मरे तो अचानक देखा हमारे संमाज के प्रतिनिधि अचानक दुखी हो गए. सबके सब गहरे शोक में डूब गए , एक अपूर्णीय क्षति हो गयी भारतीय कला की (कम से कम सब लोग ऐसा ही स्वांग रचा रहे थे ). फिर मै सोचना शुरू किया की प्रथम बार कब मैंने मकबूल साहब का नाम सुना था ! फिर याद आया की मै उनकी उनके चित्रकारी के लिए नहीं 'हम आपके है कौन' की माधुरी दीक्षित के लिए जानता हु. फिर मकबूल साहब इतने दीवाने हुए की उनका नाम हुआ "माधुरी फ़िदा हुसैन ". बड़े लोग के सब काम बड़े. अगर मै उस उम्र में कुछ वैसा करू तो घोर पाप होगा पर मकबूल साहब करे तो वो उनकी 'प्रेरणा' होगी. शाहजहा ने मुमताज के लिए ताजमहल बनाया और मकबूल साहब ने गजगामिनी. अब तक तो ठीक था पर हुसैन साहब का अगला काम इससे से भी अछा निकला. हुसैन साहब ने हिन्दुओ के देवी देवताओ के कुछ चित्र बनाये . कुछ लोगो ने इसका बिरोध किया. वो बिरोध इतना ही जोरदार था की हुसैन साहब को नागरिकता  छोड़नी पड़ी भारत की. ऐसे में कुछ  भाइयो ने दूकान चलानी शुरू की. हुसैन साहब का ये काम उन्हें बोलने की स्वतन्त्रता लगी . उन्हें लगा की हुसैन साहब पर किया हुआ हमला लोकतंत्र पर हमला है. पर इन सब के बावजूद हुसैन साहब चुप रहे. ये वाही हुसैन साहब है जिन्होंने एक फिल्म बनाई थे "मीनाक्षी:डी टेल ऑफ़ थ्री सिटिज " .. ये उन दिनों की बात है जब हुसैन साहब तब्बू के दीवाने थे. मीनाक्षी:डी टेल ऑफ़ थ्री सिटिजके एक कव्वाली "नूर उन अला नूर " पर कुछ मुस्लिम संमाज के प्रतिनिधियों ने आपत्ति की और फिल्म अपने तीसरे दिन में ही सिनेमाघरों से हटा ली गयी. मुझे आज तक ये नहीं समझ में आया की हुसैन साहब इतने उदार हिन्दू भावनाओं के प्रति  क्यों नहीं हो सके. और अगर लार विल्क्स की इसलिए निंदा की जा सकती है की उन्होंने मोहम्मद साहब को गलत तरीके से प्रदर्शित किया है तो मकबूल फ़िदा हुसैन अनिन्दनीय कैसे हो सकते है???
हुसैन साहब ने एक और चित्र बनाया था महात्मा  गाँधी , कार्ल  मार्क्स , अल्बर्ट  इन्स्तेइन  और हिटलर का. सारे लोग कपडे में और हिटलर भाई नंगे . तर्क था की वो हिटलर को घृणा करते है इसलिए उसे नंगा दिखाया है. अब आप खुद भी सोच सकते है की हुसैन साहब ने हिन्दुओ के आश्थाओ से कितना प्रेम करते है की सारी उम्र उनको नंगा दिखाने में कटा दी. दादू मरे नहीं की लोगो ने दूकान फिर खोल दी. इस बार मांग दी उनका क्रिया कर्म तो भारत की पवित्र भूमि में ही होना चाहिए  जैसे उनके शव के राख के बिना कितना अधुरा है भारत बर्ष . आश्चर्य होता है की ये वाही सरकार है और ये वाही लोग है जो आधी रात को बूढ़े बचो औरतो पे लाठी बरसाते है. मुझे आश्चर्य होता की भारत का संबिधान सबके लिए एक है और सब एक अधिकार रखते है !!!!!

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